भाजपा द्वारा बदले गए माहौल और फैसलों का इम्तिहान इमोशनल वोटिंग और निर्दलीय उम्मीदवार बदल सकते हैं रियासत की सियासत
- editor i editor
- Oct 01, 2024

कभी पत्थरबाजी, हिंसा और हड़ताल के लिए बदनाम श्रीनगर के डाउनटाउन के घरों की खिड़कियां इन दिनों साबूत हैं। चमकते शीशे हैं। पहले कई सालों तक यह अतिदुर्लभ तस्वीर थी। अनुच्छेद-370 हटने के बाद इस नए नामुमकिन कश्मीर को मुमकिन वाली कैटेगरी में दर्ज किया गया है। सड़कों, मोहल्लों, बाजारों से तो यही नजर आ रहा है, लेकिन जो इन खिड़कियों से नजर आता है, क्या वह ही घाटी का सच है? कश्मीर में जो दिखाई दे रहा है, क्या वह अवाम के भीतर का भी आईना है? इन सबका जवाब जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव के नतीजे देंगे। जम्मू-कश्मीर में 90 सीटों में से बहुमत वाले 46 विधायक जुटाने के लिए ये एक-एक निर्दलीय उम्मीदवार और छोटी पार्टी के जीते हुए जांबाज जम्मू-कश्मीर की सियासत को अंजाम तक ले जाएंगे।वैसे तो कश्मीर में खुदा ही जानता है कि कौन जीतेगा। राजनीति के जानकार कुबूल करते हैं कि यहां के लोगों का कोई भरोसा नहीं। कब किसके साथ हो जाएं। वैसे भरोसा तो यहां के नेताओं का भी नहीं। यह देश का इकलौता सूबा है, जहां हर पार्टी, हर दूसरी पार्टी के साथ कभी न कभी सरकार बना चुकी है। पीडीपी एनसी के साथ, पीडीपी कांग्रेस के साथ, पीडीपी भाजपा के साथ, एनसी कांग्रेस के साथ और एनसी भाजपा के साथ। राजनीति के साथ-साथ कश्मीर में मौसम भी अलग अलग किस्मों का होता है। सर्दियों में बर्फ सा सफेद और पतझड़ में चिनारों के सूखे पत्तों सा लाल सुर्ख। घाटी ने सियासत के बहुतेरे रंग देखे हैं। बात शुरू होती है 1987 से। चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस का मुकाबला मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट से था, जो सभी धार्मिक संगठन, जमात-ए-इस्लामी और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस का गठबंधन था। संयोग ऐसा कि इस फ्रंट का चुनाव चिह्न वही कलम दवात था, जो आज पीडीपी का है। वह पीडीपी जिसका जन्म 1997 में हुआ। एनसी ने मुस्लिम फ्रंट को मजबूत टक्कर दी थी। हिजबुल चीफ सैयद सलाउद्दीन तब श्रीनगर के बटमालू से मुस्लिम फ्रंट का उम्मीदवार था और जेकेएलएफ प्रमुख यासिन मलिक पोलिंग एजेंट। चुनावों में जमकर गड़बड़ी हुई और कुबूल किया जाता है कि इसी चुनाव के बाद घाटी में आतंकवाद की शुरूआत हुई। कश्मीरियत की सियासत में दूजा सबसे चटख रंग आया 2014 के दौर में, जब पीडीपी-भाजपा की सरकार थी। तब चलती पीडीपी की थी। पॉलिसी उसी की। गठबंधन की शर्तों में भी पहला हक उसी को। बात पत्थरबाजों को छोड़ने की हो, 370 को न छूने का वादा हो, या बुरहान वानी को नहीं मारना था, जैसा बेतुका बयान हो। तस्वीरें गवाह हैं कि बुरहान के जनाजे में आई भीड़ कश्मीर में किसी के जनाजे की सबसे बड़ी भीड़ थी। शायद शेख अब्दुल्ला के जनाजे में भी इतनी भीड़ नहीं थी। सियासी मुहुर्त ने चौघड़ियां बदलीं। जिसे आम आबादी से लेकर हर दल ने असंभव मान लिया था, उस अनुच्छेद-370 को खत्म करना कश्मीर में बदलाव की किताब के कई सारे पन्नों को एकसाथ पलट देने जैसा था। यह 2019 का वक्त था। सत्यपाल मलिक गर्वनर थे। एक दिन अगस्त माह में अमरनाथ यात्रा को आधे पर रोक दिया गया। पर्यटकों को कश्मीर से लौटने का फरमान सुनाया गया। तीन महीने के लिए इंटरनेट बंद। नेता, अलगाववादी, पत्थरबाज या तो नजरबंद या जेल में। ये मौका था 370 खत्म करने का। इसके साथ हड़ताल वाले कैलेंडर, पत्थरबाजी, प्रदर्शन भी खत्म हो गए। राज्य में दस साल बाद हो रहे चुनाव 370 हटाने के फैसले की लोकतांत्रिक परीक्षा मानी जा रही है। 1984 व 1987 के बाद इतनी बंपर वोटिंग हो रही है। सायकोलॉजी की भाषा में इसे इमोशनल वोटिंग कह सकते हैं। वरना दहशत के बीच यहां पली बढ़ीं कई पीढ़ियां ऐसी हैं, जिन्होंने कभी वोट नहीं डाला। 3 से 5% मतदान और कुछ 50-100 वोट पड़ने से सीएम बनवा देने का अनोखा उदाहरण भी यहीं मिलेगा। और शायद पहला मौका होगा, जब कट्टर हिंदुत्व व अतिकट्टर इस्लाम को मानने वाले विधायक एकसाथ विधानसभा में हुंकार भर रहे होंगे। ये दो अतिविशिष्ट बैरी सरकार में साथ भी हो सकते हैं, असंभव कुछ नहीं। सरकार किसकी बनेगी, इसके दो जवाब हैं। पहला, कश्मीर की किसी एक पार्टी और किसी एक राष्ट्रीय दल की दोस्ती की। और दूसरा मल्टीग्रेन खिचड़ी जैसी। इसमें भिन्न-भिन्न विचार वाले नेता होंगे, जो सत्ता की चटनी चखने के लिए अपनी परंपराओं व प्रतिष्ठाओं को सीएम की अखरोट की लकड़ी की बनी कुर्सी के लिए फना कर देंगे। ऐसा होता है तो रियासत की राजनीति में निर्दलीय उम्मीदवार अचानक से लंबरदार हो जाएंगे। इनमें जमात-ए-इस्लामी के मौलाना भी हैं और हुर्रियत के सरदार भी। मुट्ठीभर वे कश्मीरी पंडित भी, जो सालों से वापसी की उम्मीद हथेलियों में संभाले बैठे हैं। इन आजाद उम्मीदवारों की लिस्ट में पूर्व आतंकियों के रिश्तेदार भी हैं और बड़ी पार्टियों से खफा होकर अपने पत्ते तीन परतों के नीचे छिपाए बैठे तमाम पूर्व मंत्री भी। कश्मीर में कुछ सालों में पैदा हुई और बमुश्किल पनपी छोटी पार्टियां भी बहुमत की बारहखड़ी जुटाने में अहम किरदार निभाएंगी। इनमें पिछले चुनावों में बीजेपी को अपना भाई और इन चुनावों में दुश्मन कहने वाले सज्जाद लोन भी हैं। उमर अब्दुल्ला को तिहाड़ जेल में रहते हुए हराने वाले इंजीनियर रशीद भी इसी किस्म का हिस्सा हैं। 90 सीटों में से बहुमत वाले 46 विधायक जुटाने के लिए ये एक-एक निर्दलीय उम्मीदवार और छोटी पार्टी के जीते हुए जांबाज जम्मू-कश्मीर की सियासत को अंजाम तक ले जाएंगे। कश्मीर को सूबे की सियासत और सरकार का एपीसेंटर भले माना जाता हो, लेकिन इस बार नतीजों की क्रोनोलॉजी जम्मू ही तय करेगा। कौन सी पार्टी वहां कितना बेहतर प्रदर्शन करती है, इससे ही तय होगा कि वादी की सियासत में क्या जुड़ेगा और क्या घटेगा।