भारत अपने विचार परंपरा में विभक्त होने के बाद भी विश्वास परंपरा में एक है : आचार्य नन्दिनीशरण महाराज
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- Mar 01, 2025
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- मेपकोस्ट परिसर में दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के त्रिदिवसीय राष्ट्रीय शोधार्थी समागम-2025 का हुआ उद्घाटनभोपाल, 01 मार्च (हि.स.)। प्रख्यात चिंतक, सिद्धपीठ श्रीहनुमन्निवास अयोध्या के पीठाधीश्वर आचार्य मिथिलेश नन्दिनीशरण महाराज ने कहा कि प्रयागराज में संपन्न महाकुंभ भारतीय एकात्मता का वैश्विक अनुष्ठान है, जिसमें हिंदी, तमिल, तेलगु के लिए लड़ने वाले, आंचलिक भाषाओँ के लिए संघर्ष करने वाले, आहार-विहार की विविधता वाले सभी डुबकी लगा रहे थे। भारत अपने विचार परंपरा में विभक्त होने के बाद भी विश्वास परंपरा में एक है।
नन्दिनीशरण महाराज शनिवार को भोपाल के मेपकास्ट परिसर में दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय शोधार्थी समागम-2025 के उद्घाटन सत्र को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि देश विचार नहीं, विश्वास परंपरा से चलता है। अनादि काल से हमारे ऋषियों ने विचारों को विश्वास की व्यवस्था में ढाला। उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा गुरुकुल में निहित है। आज स्थिति यह हो गई कि समाज में 10 वर्ष से आयु की 50 प्रतिशत बच्चों के नाम गूगल से रखे गए हैं। 50 प्रतिशत नाम अपशब्द है। हम अपनी जड़ों को खुद को काटकर उनसे पिंड छुड़ा चुके लोग हैं और जब हमें यह याद दिलाया गया कि आपकी जड़ों में अमृत था तो हम अपने कटे हुए टुकड़ों को गाड़ अपेक्षा कर रहे हैं कि अमृत मिल जाए।
सेवा की विद्या पद्धति से ही आएंगे सेवा पारायण लोग-
नन्दिनीशरण महाराज ने कहा कि हमने गुरुकुलों में मिलने वाली मुफ्त विद्या की व्यवस्था को समाप्त कर दिया है। सेवा पारायण लोग सेवा की विद्या पद्धति से ही निर्मित होते हैं, वे न तो द्रव्य की विद्या पद्धति से निर्मित होते हैं और न ही नहीं विद्या की विद्या पद्धति से। उन्होंने कहा कि शोध को शिक्षण परिसर से बाहर लाना पड़ेगा। जो देयकों के लिए लिख रहे हैं, उनसे समाज को कोई आशा नहीं होती।
उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परम्परा गुरुकुल पद्धति में निहित है। शताब्दियों से दासता ग्रस्त हमारी हमारी सारी चेतना कुलीनता के विचार को नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध है। जब हम आप किसी को शुद्ध करने चलते है, तो शुद्धि का अर्थ होता है मूल की ओर चलना और यहीं शोध है। ज्ञान एवं विज्ञान पर अपनी निजी अवधारणा इंगित करते हुए उन्होंने कहा कि विज्ञान का अर्थ भौतिकी, रसायन और तकनीकी ही नहीं होता, बल्कि उसमें मानवता का कल्याण निहित हो। उन्होंने कहा कि प्रकृति संघर्ष मूलक नहीं बल्कि सामंजस्यमूलक है, लेकिन द्वन्द तो है, और वह सतत् विद्यमान है। जैसे प्रकृति और मनुष्य में द्वन्द है, मनुष्य अपने अस्तित्व को ठीक करने में ही प्रकृति के विरुद्ध हो गया है। आज हमारे राष्ट्र की सारी लड़ाई आस्तिकता के लिए है।
उन्होंने कहा कि हमने धरती को कोरा कागज समझ कर जहां चाह वहां नाली, सड़क, नहर, इमारत बना देते हैं, लेकिन, इस बात का ध्यान नहीं रखते कि धरती की भी अपनी संरचना है, उसका अपना आकर्षण-विकर्षण, पंच भूतों की योजना है। हमने वास्तु शास्त्र को अपना लिया लेकिन धरती की संरचना को नहीं समझ पाए। हमारे पारंपरिक जलाशय जल लेने और देने की योग्यताओं से युक्त थे। विज्ञान के आधार पर हमने जो जल व्यवस्था निर्मित की उसमें जल दे सकते हैं लेकिन ले नहीं सकते। इसी कारण भूजल स्तर गिरता जा रहा है और जल प्रदूषित हो रहा है। शोध करते हुए यह समझना चाहिए कि जो कुछ मौलिक है वह रूढ़िवादी नहीं है, उसे रूढ़िवादी कहकर निरस्त न करें।
विश्व की प्रतिष्ठा धर्म पर-
उन्होंने कहा कि विश्व की प्रतिष्ठा धर्म पर है सारा जगत धर्म की अवधारणा पर आधारित है। दुनियों को इतिहास बताने वाले लोग भारतीय ही है। किन्तु अहम् को त्याग कर राष्ट्र एवं समाज की प्राथमिकता को ध्यान में रखकर काम करना है क्योंकि बड़े वृक्ष अपनी छाया में घिर जाते है। आज मनुष्यता 'नॉनसेन्स' होती जा रही है, और मनुष्य तकनीकी सेंसर वाले। हम कितना भी वैज्ञानिकता को स्वीकार कर ले किन्तु यह अनुभूति बनी रहें कि किसी परम्परा में यदि कुछ चला आ रहा है तो उसमें कुछ प्रमाणिकता है। अतः शोध इस बात पर नहीं करना कि कही नहीं लिखा बल्कि यह परिवर्तित कैसे हुई यह हमारी भारतीय ज्ञान परम्परा है, हमें अपने शोध में मौलिकता की ओर लौटना है।
संन्यास का समानार्थी कोई शब्द नहीं-
नन्दिनीशरण ने कहा कि भारत के बाहर अन्य किसी भाषा में संन्यास के लिए कोई शब्द नहीं है क्योंकि भारत के बाहर संन्यास की कोई अवधारणा नहीं है। जब हम अनुवाद करें तो हमें यह देखना चाहिए कि अर्थ शब्दों में नहीं, जीवन में होते हैं। कार्यक्रम में प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री इंदर सिंह परमार, प्रसिद्ध विचारक और चिंतक मुकुल कानिटकर ने भी संबोधित किया।--------------
हिन्दुस्थान समाचार / मुकेश तोमर