कालीगंज उपचुनाव : पहचान की राजनीति, राष्ट्रवाद और विरासत के मुद्दों के बीच कांटे की टक्कर

कोलकाता, 17 जून (हि. स.)। पश्चिम बंगाल की कालीगंज विधानसभा सीट पर आगामी उपचुनाव एक बेहद अहम त्रिकोणीय मुकाबले के रूप में उभर रहा है। यह चुनाव तृणमूल कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस-वाम गठबंधन के बीच होने जा रहा है। 19 जून को मतदान और 23 जून को मतगणना प्रस्तावित है। यह चुनाव उस समय हो रहा है जब पहचान की राजनीति, विरासत आधारित दावे और हालिया सैन्य अभियान ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद राष्ट्रवादी भावना अपने चरम पर है।

यह राज्य में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद पहली चुनावी परीक्षा है। इस सैन्य कार्रवाई को भारतीय सेना ने सात मई को पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में अंजाम दिया था। इसके बाद राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा खासकर भाजपा के चुनाव प्रचार में प्रमुखता से उभरा है, खासकर इस अल्पसंख्यक बहुल सीट पर।

यह उपचुनाव भाजपा विधायक नसीरुद्दीन अहमद के निधन के कारण कराया जा रहा है। पार्टी ने उनकी 38 वर्षीय बेटी और बीटेक डिग्रीधारी कॉर्पोरेट पेशेवर अलिफा अहमद को प्रत्याशी बनाया है, जो अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की बात कह रही हैं।

अलिफा ने नामांकन के बाद कहा कि पिता के निधन के बाद मुझे लगा कि उनके अधूरे सपनों को पूरा करना मेरी जिम्मेदारी है। ममता बनर्जी और कालीगंज की जनता के आशीर्वाद से मैंने सार्वजनिक जीवन में कदम रखने का फैसला किया।

भाजपा ने स्थानीय पंचायत सदस्य और पूर्व मंडल अध्यक्ष आशीष घोष को मैदान में उतारा है। प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने उन्हें “जमीनी स्तर का निष्ठावान कार्यकर्ता” बताते हुए कहा कि वह “तृणमूल के कुशासन” को चुनौती देंगे।

कांग्रेस-वाम गठबंधन की ओर से काबिल उद्दीन शेख को उम्मीदवार बनाया गया है। शुरुआत में माकपा की इस सीट में रुचि थी, क्योंकि 2024 के लोकसभा और 2023 के पंचायत चुनावों में उसे अच्छी बढ़त मिली थी। हालांकि, गठबंधन की एकता बनाए रखने के लिए आरएसपी जैसे पुराने सहयोगी दलों ने कांग्रेस को समर्थन दिया।

माकपा के राज्य सचिव मोहम्मद सलीम ने कहा कि हाल के चुनावों में हमने कालीगंज में अच्छा प्रदर्शन किया है। 2016 में कांग्रेस-वाम गठबंधन ने यह सीट जीती थी। एकजुट प्रत्याशी फिर से तृणमूल और भाजपा दोनों को हरा सकते हैं।

इस चुनाव की पृष्ठभूमि में हाल में हुए मुर्शिदाबाद दंगे भी हैं, जिनमें तीन लोगों की मौत हो गई थी और कई परिवार विस्थापित हुए थे। इससे सांप्रदायिक तनाव को लेकर चिंताएं और बढ़ गई हैं। कालीगंज सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 54 प्रतिशत है, जबकि अनुसूचित जाति के 14.43 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के 0.42 प्रतिशत मतदाता हैं। ऐसे में पहचान आधारित राजनीति की भूमिका बेहद अहम मानी जा रही है।

तृणमूल ने भाजपा पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का आरोप लगाया है, जबकि भाजपा इसे भ्रष्टाचार और तुष्टिकरण के खिलाफ जनादेश बता रही है।

अलिफा अहमद ने कहा कि भाजपा समुदायों के बीच नफरत फैलाने का काम करती है, लेकिन कालीगंज ने हमेशा ऐसी राजनीति को नकारा है। जवाब में भाजपा उम्मीदवार आशीष घोष ने कहा कि यह हिंदू या मुस्लिम का मुद्दा नहीं है, यह शासन और विकास का मुद्दा है, जिसमें तृणमूल विफल रही है।

इतिहास बताता है कि कालीगंज की सीट हमेशा दलों के बीच झूलती रही है। वामपंथी शासन के दौरान यह सीट कई बार आरएसपी के पास रही, जबकि कांग्रेस ने 1987, 1991 और 1996 में जीत दर्ज की। 2011 में तृणमूल ने इसे अपने पक्ष में किया और 2016 में कांग्रेस-वाम गठबंधन ने इसे फिर जीता, लेकिन बाद में विधायक तृणमूल में शामिल हो गए। 2021 में तृणमूल ने इस सीट पर 54 प्रतिशत से अधिक वोट पाते हुए इसे फिर से जीत लिया था, वहीं भाजपा को 31 प्रतिशत और कांग्रेस को 12 प्रतिशत वोट मिले थे।

राजनीतिक विश्लेषक मैदुल इस्लाम का मानना है कि इस उपचुनाव में पहचान की राजनीति ही दोनों प्रमुख दलों की रणनीति का केंद्र बनेगी।

उन्होंने कहा कि मुर्शिदाबाद दंगों के बाद पहचान की राजनीति और अहम हो गई है। भाजपा राष्ट्रवादी भावना को भुनाएगी, जबकि तृणमूल केंद्र सरकार की विफलताओं को उजागर करने की कोशिश करेगी, खासकर पहलगाम हमले को लेकर।

चुनाव को शांतिपूर्ण संपन्न कराने के लिए पश्चिम बंगाल के मुख्य चुनाव अधिकारी ने केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीएपीएफ) की 20 कंपनियों की तैनाती की घोषणा की है।

इस उपचुनाव का परिणाम 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले बंगाल की बदलती राजनीतिक दिशा का संकेत देने वाला माना जा रहा है।

हिन्दुस्थान समाचार / ओम पराशर

   

सम्बंधित खबर