19वीं सदी में कृषि और पर्यावरण की रीढ़ थीं दून घाटी की नहरें, समाज की जीवन रेखा थीं 

देहरादून, 21 नवंबर (हि.स.)। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में गुरुवार को दून घाटी की ऐतिहासिक नहर प्रणाली पर एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस अवसर पर विजय भट्ट और इंद्रेश नौटियाल ने दून घाटी की लुप्त होती ऐतिहासिक नहरों पर सचित्र वार्ता प्रस्तुत की। कार्यक्रम का आयोजन भारत ज्ञान विज्ञान समिति के सहयोग से हुआ। इसमें नहरों के ऐतिहासिक योगदान, वर्तमान स्थिति और उनके संरक्षण की जरूरत पर गहन चर्चा की गई।

विजय भट्ट ने बताया कि 19वीं सदी में दून घाटी की नहरें कृषि और पर्यावरण की रीढ़ थीं। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में बनी राजपुर नहर और ब्रिटिश शासनकाल में निर्मित बीजापुर, रायपुर, जाखन और अन्य नहरों की ऐतिहासिक भूमिका पर प्रकाश डाला। इन नहरों ने घाटी की कृषि भूमि को सिंचित और उपजाऊ बनाया, जिससे चाय, बासमती चावल और लीची जैसी फसलों को बढ़ावा मिला।

इंद्रेश नौटियाल ने कहा कि विकास के नाम पर आज इन नहरों को समाप्त कर सड़कों का निर्माण कर दिया गया है, जिससे न केवल कृषि भूमि कम हुई है बल्कि दून घाटी का पर्यावरण भी प्रभावित हुआ है। उन्होंने दून की इस ऐतिहासिक विरासत को बचाने की अपील की।

कार्यक्रम की शुरुआत सामाजिक विचारक बिजू नेगी के वक्तव्य से हुई। चर्चा के दौरान नहरों के लुप्त होने और बढ़ते तापमान के बीच के संबंध पर भी विमर्श हुआ।

कार्यक्रम में पर्यावरणविद् डॉ. रवि चोपड़ा, चंद्रशेखर तिवारी, अजय शर्मा, इरा चौहान, हर्षमणि भट्ट, अतुल शर्मा, और शहर के कई लेखक, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद रहे।

हिन्दुस्थान समाचार / कमलेश्वर शरण

   

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