उत्तरकाशी, 20 दिसंबर (हि.स.)। उत्तराखंड जल बिरादरी के सुरेश भाई ने मुख्यमंत्री को सुझाव पत्र प्रेषित कर राज्य में भीषण आपदा के बाद भविष्य के लिए आपदा न्यूनीकरण पर गहन चर्चा करवाने की मांग की हैं।
पत्र में कहा कि मानसून सीजन में धराली, थराली, ऋषि गंगा, छेना गाड, नंदनगर, स्यानाचट्टी केदारनाथ, बद्रीनाथ, और कुमाऊं मंडल में सन् 2023 से लगातार आई आपदाओं ने भविष्य में सावधानी पूर्वक सचेत रहने की चेतावनी दी है।
उत्तरकाशी में भागीरथी इको सेंसेटिव की शर्तों को लागू करने की आवश्यकता है। सुझाव दिया गया कि इको सेंसेटिव जोन की शर्तें लागू की जाती तो आपदा को कम किया जा सकता था। झाला से भैरों घाटी के बीच में लगभग 20 किमी में देवदार के पेडों को बचाया जाए और सड़क की चौड़ाई इतनी हो कि दो गाड़ियां आ जा सके। इसके साथ ही नदियों के किनारे और ग्लेशियरों के मुहाने पर लोग बड़ी मात्रा में जमा हो रहे हैं।
जहां पर बन रही बहुमंजली इमारतें, अंधाधुंध पर्यटन, बडे निर्माण के लिए वनों का कटान आदि कभी भी भीषण तबाही के शिकार बन सकते हैं। पत्र में यह भी अनुरोध किया गया कि वनों में लग रही आग के कारण वनस्पतियां जलने के बाद मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और ऐसे संवेदनशील स्थानों पर वनों का व्यावसायिक दोहन किया जा रहा है। आपदा के समय काटी हुई लड़कियां भी बहकर आई है जो बहुत चिंताजनक है।
यहां भी मांग की गई कि यमुनोत्री और गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर भविष्य में सुधारीकरण के नाम पर निकलने वाले मलवे को यमुना और भागीरथी में न डाला जाए। गंगा और यमुना के उद्गम से 150 किलोमीटर आगे तक बड़े निर्माण कार्य इसलिए नहीं होने चाहिए कि यहां पर बाढ़ भूकंप और भूस्खलन की संभावनाएं है। अतः यहां पर बहुत संयमित और सावधानीपूर्वक निर्माण आदि करने की आवश्यकता है ताकि पहाड़ भी बचे रहे और आपदा को भी न्यूनीकरण किया जाए।
अंधाधुन पर्यटक और तीर्थ यात्रियों के द्वारा डंप किया जा रहा प्लास्टिक कूड़ा- कचरा का प्रबंध उचित देखभाल में करने की आवश्यकता है। हिमालय क्षेत्र में विकास के लिए पृथक मॉडल की आवश्यकता है। कम से कम उत्तराखंड में तो जहां हिमालय दिवस बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है वहां पर हिमालय विकास का एक मॉडल बनाया जाना चाहिए ताकि इको फ्रेंडली विकास की तरफ कदम बढ़ाया जा सके।
सुरंग आधारित परियोजनाओं को रोकने की आवश्यकता है क्योंकि जहां-जहां सुरंगे बन रही है वहां गांव में दरारें पड़ रही है और पानी सूख रहा है।पत्र में सुझाव दिया गया कि आपदा में क्षतिग्रस्त भवन और मृतकों के के लिए मुआवजा राशि बहुत ही कम है जिसे 10 लाख रुपए तक बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही कृषि और कृषि योग्य भूमि को होने वाले नुकसान का मुआवजा उत्तराखंड जैसे हिमालय राज्य में जहां छोटे और सीमांत किसान है, उन्हें हेक्टर के रूप में भुगतान किया जाता है जो रुपए 200 से 5000 तक की मिल पाता है।
इसको प्रति नाली के रूप में भुगतान करने की नीति निर्धारित की जानी चाहिए ताकि उन्हें भविष्य में दूसरे स्थान पर अपने को स्थापित करने में पर्याप्त साधन मिल सके। इस पत्र पर सुरेश भाई, पर्यावरण प्रेमी प्रताप पोखरियाल, ग्लेशियर लेडी शांति ठाकुर, एडवोकेट आनंद सिंह पवार एवं मोहनलाल शाह, सामाजिक कार्यकर्ता कल्पना ठाकुर, गंगा विचार मंच के प्रांत संयोजक लोकेंद्र सिंह बिष्ट, पर्यावरण शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के उत्तराखंड संयोजक डॉ विनोद प्रसाद जुगलान आदि के हस्ताक्षर हैं।
हिन्दुस्थान समाचार / चिरंजीव सेमवाल



