(साक्षात्कार) 'फिल्म इंडस्ट्री में सफलता के लिए रिस्क नहीं, कॉन्फिडेंस जरूरी' : राम गोपाल वर्मा

राम गोपाल वर्मा - फोटो सोर्स एक्स

लोकेश चंद्र दुबे

1995 में रिलीज हुई आमिर खान और उर्मिला मातोंडकर की कल्ट-क्लासिक 'रंगीला' एक बार फिर बड़े पर्दे पर वापसी करने जा रही है। लगभग 30 साल बाद यह प्रतिष्ठित फिल्म को दोबारा सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। आरडी बर्मन के संगीत, ए.आर. रहमान के बैकग्राउंड स्कोर, आमिर-उर्मिला की ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री और राम गोपाल वर्मा के अनोखे निर्देशन के तरीके ने इस फिल्म को 90 के दशक की सबसे यादगार फिल्मों में शामिल किया था। इस खास मौके पर फिल्म के निर्देशक राम गोपाल वर्मा ने 'हिन्दुस्थान समाचार' से विशेष बातचीत की। इस दौरान उन्होंने न सिर्फ 'रंगीला' के पुनः रिलीज होने को लेकर अपनी भावनाएं शेयर कीं, बल्कि अपने फिल्मी करियर, बदलते सिनेमाई दौर और साउथ वर्सेज बॉलीवुड बहस पर भी खुलकर बात की।

आज पीछे मुड़कर देखें तो 'रंगीला' आपके करियर के लिए क्या मायने रखती है?

कुछ फिल्में सचमुच टाइमलेस होती हैं। उन्हें आप किसी भी दौर में देख लें, हर बार वही मज़ा, वही एंटरटेनमेंट मिलता है। इस फिल्म की कहानी और इसके किरदार आज भी दर्शकों के साथ वैसे ही जुड़ते हैं जैसे पहली बार जुड़ते थे। इसके गानों को जिस तरह से कंपोज़ किया गया और जिस खूबसूरती से उन्हें फिल्माया गया, उसने अपने समय में एक नया बेंचमार्क सेट कर दिया था। कई ऐसे क्रिएटिव एलिमेंट्स हैं जो एक साथ आकर इस फिल्म को न सिर्फ सफल बनाते हैं, बल्कि उसे एक क्लासिक का दर्जा भी दिलाते हैं।

क्या आप बता सकते हैं कि एआर रहमान को इस परियोजना से जोड़ने का निर्णय कैसे लिया गया?

'रंगीला' से पहले भी मैंने रहमान का काम सुना था और सच कहूं तो उनके संगीत की बनावट, उनका रिदम सब कुछ मुझे चकित कर देता था। अच्छे संगीतकार बहुत होते हैं, लेकिन रहमान की धुनों में जो ताज़गी और एक्सपेरिमेंटल टच होता था, वो किसी और में नहीं मिला। यही वजह थी कि मैं शुरुआत से ही इस फिल्म का म्यूजिक उन्हीं से करवाने को लेकर बहुत उत्सुक था। मैंने म्यूजिक की प्रोसेस में कभी दखल नहीं दिया, क्योंकि मुझे भरोसा था कि रहमान जो बनाएंगे, वो कमाल ही होगा। और हुआ भी वही 'रंगीला' का संगीत जितना हिट हुआ, उससे साफ दिखता है कि उस वक्त रहमान ने जो क्रिएट किया, वैसा जादू शायद दोबारा कभी रिपीट होना मुश्किल है।

आज के सिनेमाई माहौल में वही कहानी कहनी हो तो आप क्या बदलाव सुझाएंगे?

'रंगीला' की कहानी हर दौर में उतनी ही प्रासंगिक और रिलेटेबल है, इसलिए मुझे नहीं लगता कि इसमें किसी बदलाव की जरूरत है। मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं चाहूंगा कि इसका सीक्वल बनाया जाए या इसे दोबारा रिक्रिएट करने की कोशिश हो। इस फिल्म की आत्मा इसके कलाकारों, संगीत और उस दौर की मासूमियत में है, जिसे दोबारा वैसा ही गढ़ पाना मुश्किल है। दर्शक भी शायद इस कहानी को किसी नए कलाकार के साथ देखना पसंद न करें, क्योंकि उनके लिए 'रंगीला' उसी रूप में परफेक्ट है जैसा वह बनी थी।

क्या आपको लगता है कि आज के फिल्मकार हिंदी सिनेमा में रिस्क लेने या नए प्रयोग करने से कतराते हैं?

मैं अपनी बात करूं तो मैंने कभी फिल्मों को रिस्क मानकर नहीं बनाया। हर प्रोजेक्ट मेरे लिए एक तरह का कॉन्फिडेंस था, कहानी पर, अपनी टीम पर और अपने क्रिएटिव इंट्यूशन पर। इसके उलट, जो लोग सिर्फ एक ही तरह की फिल्में बार-बार बनाते रहते हैं, दरअसल वही सबसे बड़ा रिस्क ले रहे होते हैं। दर्शक आज बेहद जागरूक हैं और उनकी पसंद लगातार बदल रही है। इसी वजह से करीब 90 प्रतिशत फिल्में बॉक्स ऑफिस पर फेल हो रही हैं। इसका सरल मतलब यह है कि इस इंडस्ट्री में अब किसी भी फॉर्मूले या शैली की सफलता की कोई गारंटी नहीं बची है। ओरिजिनलिटी और होनेस्टी ही काम आती है।

'कांतारा' की सफलता के बाद, क्या हिंदी फिल्ममेकरों को साउथ सिनेमा से सीख लेनी चाहिए? आपने इस पर एक ट्वीट भी किया था, उसके पीछे आपकी सोच क्या थी?

देखा जाए तो साउथ में भी कई फिल्में बनती हैं जो उम्मीद के अनुसार अच्छी नहीं होतीं। अक्सर हम केवल सफल या अच्छी फिल्मों को देखकर यही मान बैठते हैं कि वहां हर फिल्म बेहतरीन होती है, लेकिन यह सच नहीं है। हां, रिषभ शेट्टी और संदीप वांगा रेड्डी जैसे कुछ चुनिंदा फिल्ममेकर ऐसे हैं जो ओरिजिनल, नया और क्रिएटिव कंटेंट बना रहे हैं, लेकिन ये काफी सीमित उदाहरण हैं। मुंबई की कॉर्पोरेट प्रोडक्शन कंपनियों में अक्सर 10 लोग बैठकर फिल्म के हर पहलू पर निर्णय लेते हैं। मेरा अनुभव कहता है कि इससे क्रिएटिविटी प्रभावित होती है और अक्सर निर्णय उस फिल्म के लिए सही साबित नहीं होते।

इसके उलट, जब कोई प्रतिभाशाली निर्देशक अकेले या छोटे ग्रुप के साथ फिल्म पर काम करता है, तो वह कुछ बिल्कुल अलग और असाधारण क्रिएट कर सकता है। मेरा मानना है कि सबसे बेहतर तरीका यह होगा कि निर्देशक को पूरी क्रिएटिव आजादी दी जाए, ताकि वह अपनी कहानी और विज़न को पूरी तरह से फिल्म में उतार सके। बाद में प्रोडक्शन की टीम बिज़नेस और मार्केटिंग जैसे पहलुओं पर सलाह और निर्णय ले सकती है। इस तरह का बैलेंस क्रिएटिव फ्रीडम और बिज़नेस इनपुट का फिल्म की गुणवत्ता और सफलता दोनों के लिए सबसे कारगर साबित हो सकता है।

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हिन्दुस्थान समाचार / लोकेश चंद्र दुबे