आर्कटिक क्षेत्र में वैज्ञानिक अध्ययन के लिए अबतक 15 सफल अभियान चलाए गए

नई दिल्ली, 13 फ़रवरी (हि.स.)। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय अपने स्वायत्त संस्थान राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (एनसीपीओआर), गोवा के माध्यम से भारतीय आर्कटिक अभियानों का आयोजन करता है तथा भारतीय आर्कटिक अनुसंधान केंद्र हिमाद्री का प्रबंधन करता है। आजतक शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की भागीदारी के साथ आर्कटिक में 15 सफल भारतीय वैज्ञानिक अभियान चलाए जा चुके हैं। ये अभियान बहुविषयक और बहु-संस्थागत प्रकृति के हैं।

यह जानकारी केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा पृथ्वी विज्ञान राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. जितेंद्र सिंह ने आज राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में दी। इसमें बताया गया कि दूरसंचार के माध्यम से आर्कटिक बर्फ पिघलने और भारतीय मानसून के बीच संबंध को समझने के लिए विभिन्न वायुमंडलीय और महासागरीय माप किए गए हैं। भारत ने आर्कटिक बर्फ के पिघलने के कारण वायुमंडलीय और महासागरीय गुणों में होने वाले परिवर्तनों और कारणों को समझने के लिए विभिन्न महासागरीय मापदंडों को मापने के लिए आंतरिक कोंग्सफजॉर्डन में भारत की पहली पानी के नीचे स्थित वेधशाला (IND-Arc) तैनात किया है।

भारतीय वैज्ञानिकों ने आर्कटिक सागर की बर्फ पिघलने और उस दौरान होने वाली जैवभौतिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए नॉर्वेजियन पोलर इंस्टीट्यूट (एनपीआई) और कोरियन पोलर रिसर्च इंस्टीट्यूट (केओपीआरआई) के सहयोग से आर्कटिक महासागर में कई वैज्ञानिक यात्राओं में भाग लिया है।भारतीय वैज्ञानिकों ने 2023 और 2024 में कनाडा के उच्च आर्कटिक क्षेत्र में दो फील्ड कार्य किए, ताकि मानव स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण सूक्ष्मजीवों के संभावित भंडार के रूप में पर्माफ्रॉस्ट की भूमिका को समझा जा सके। भारतीय आर्कटिक कार्यक्रम की शुरुआत से लेकर अब तक 200 से अधिक वैज्ञानिक शोध प्रकाशन प्रकाशित हो चुके हैं और एक दर्जन से अधिक पीएचडी शोध प्रबंध प्रदान किए जा चुके हैं अथवा जारी हैं।

दोनों क्षेत्र- आर्कटिक और हिमालय- जलवायु और पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील हैं और इनमें एक बड़ा क्रायोस्फीयर (बर्फ से ढंका क्षेत्र) है। ग्लोबल वार्मिंग बर्फ पिघलने के माध्यम से दोनों क्षेत्रों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रही है। आर्कटिक से अवलोकन, मॉडलिंग और पिछले जलवायु डेटा पर आधारित विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि आर्कटिक समुद्री बर्फ और आर्कटिक तापमान वायुमंडलीय और महासागरीय टेलीकनेक्शन के माध्यम से भारतीय मानसून से जुड़े हुए हैं। यह जुड़ाव भारतीय मानसून में व्यवधान पैदा करेगा, जो बदले में हिमालय पर वर्षा या बर्फबारी को प्रभावित करेगा।

पिछले पांच वर्षों में आर्कटिक सर्कल में अनुसंधान के लिए आवंटित और उपयोग की गई कुल धनराशि लगभग 39.00 करोड़ रुपये रही है। आर्कटिक क्षेत्र के साथ भारत का जुड़ाव निरंतर और बहुआयामी रहा है। 17 मार्च 2022 को, भारत ने 'भारत और आर्कटिक: सतत विकास के लिए साझेदारी का निर्माण' शीर्षक से अपना आर्कटिक नीति दस्तावेज जारी किया। नीति में छह स्तंभ निर्धारित किए गए हैं। इनमें पहला- भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान और सहयोग को मजबूत करना। दूसरा- जलवायु और पर्यावरण संरक्षण। तीसरा- आर्थिक और मानव विकास। चाैथा- परिवहन और कनेक्टिविटी। पांचवां-शासन और अंतरराष्ट्रीय सहयोग और छठा- आर्कटिक क्षेत्र में राष्ट्रीय क्षमता निर्माण है।

भारत की आर्कटिक नीति के कार्यान्वयन की देखरेख एक अंतर-मंत्रालयी अधिकार प्राप्त आर्कटिक नीति समूह द्वारा की जाती है। आर्कटिक क्षेत्र में भारत के वैज्ञानिक हितों का विस्तार करने के लिए, दिसंबर 2023 से नॉर्वेजियन आर्कटिक में नियमित शीतकालीन अभियान शुरू किए गए हैं और दिसंबर 2023 से 300 से अधिक दिनों के लिए भारतीय अनुसंधान स्टेशन हिमाद्रि पर कब्जा करके आर्कटिक में वैज्ञानिक अनुसंधान और संचालन किए जाते हैं।

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हिन्दुस्थान समाचार / दधिबल यादव

   

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