परमात्मा ही इस जगत का पालनहार और संहारक: प्रो. हृदय रंजन
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- May 02, 2025

—भारतीय शास्त्रों में अद्वैत वेदान्त और सांस्कृतिक एकता में आदि शंकराचार्य का अविस्मरणीय योगदान पर विमर्श
वाराणसी, 02 मई (हि.स.)। आद्यशंकर(शंकराचार्य) जयंती के अवसर पर शुक्रवार को सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के योग साधना केन्द्र में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में विद्वानों ने भारतीय शास्त्रों में आदि शंकराचार्य के अनुपम योगदान पर गहन चर्चा की। यह संगोष्ठी ‘भारतीय ज्ञान परंपरा केंद्र (आईकेएस)’ एवं उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में सम्पन्न हुई, जिसमें संस्कृत विद्वान, वेदांती, एवं शोधार्थी शामिल हुए।
गोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन के उपाध्यक्ष प्रो हृदय रंजन शर्मा ने कहा कि वेदों में सत्ता वर्णन का अर्थ है परमात्मा या ब्रह्म की सत्ता का वर्णन। वेदों में बताया गया है कि परमात्मा ही इस सृष्टि का रचयिता है और वह सर्वव्यापी है। वेदों में वर्णित सत्ता के अनुसार, परमात्मा ही इस जगत का पालनहार और संहारक है।
वेदांती प्रो. रामकिशोर त्रिपाठी ने वेदांत के तत्वज्ञान को सभी शास्त्रों का आधार बताते हुए कहा कि “वेदों में जो ज्ञान तत्त्व निहित है, वही समस्त शास्त्रों में विस्तारपूर्वक विवेचित है।” उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि आयुर्वेद जैसे ग्रंथ भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति हेतु साधन प्रस्तुत करते हैं। तिब्बती संस्थान के आचार्य एवं कवि प्रो. धर्मदत्त चतुर्वेदी ने गोष्ठी में आदि शंकराचार्य द्वारा भारत की आध्यात्मिक एकता के लिए किए गए प्रयासों पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि शंकराचार्य ने उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम के बीच सांस्कृतिक समरसता के लिए मठों और मंदिरों में पुजारियों की नियुक्ति को क्षेत्रीय आदान-प्रदान के आधार पर निर्धारित किया, जिससे चारों दिशाओं में एकता का सशक्त सूत्रपात हो सका। भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता के लिए आदि शंकराचार्य ने विशेष व्यवस्था की थी। उन्होंने उत्तर भारत के हिमालय में स्थित बदरीनाथ धाम में दक्षिण भारत के ब्राह्मण पुजारी और दक्षिण भारत के मंदिर में उत्तर भारत के पुजारी को रखा। वहीं, पूर्वी भारत के मंदिर में पश्चिम के पुजारी और पश्चिम भारत के मंदिर में पूर्वी भारत के ब्राह्मण पुजारी को रखा था।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय के वेदांत विभागाध्यक्ष एवं परीक्षा नियंत्रक प्रो. सुधाकर मिश्र ने आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी संन्यासी परंपरा की विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने बताया कि दशनामी परंपरा के संन्यासियों को 'वन', 'अरण्य', 'पुरी', 'भारती', 'सरस्वती', 'गिरि', 'पर्वत', 'तीर्थ', 'सागर', और 'आश्रम' जैसे उपनाम दिए गए हैं, जिनके अनुसार उन्हें अलग-अलग कार्यभार सौंपे गए। पुरी, तीर्थ और आश्रम नाम के संन्यासियों को तीर्थों और प्राचीन मठों की रक्षा करनी होती है। भारती और सरस्वती नाम के संन्यासियों का काम देश के इतिहास, आध्यात्म, धर्म ग्रंथों की रक्षा और देश में उच्च स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना है। गिरि और पर्वत नाम के संन्यासियों को पहाड़, वहां के निवासी, औषधि और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया। सागर नाम के संन्यासियों को समुद्र की रक्षा के लिए तैनात किया गया।
गोष्ठी में आईकेएस केंद्र के समन्वयक प्रो. दिनेश कुमार गर्ग, सह-समन्वयक डॉ. ज्ञानेन्द्र साँपकोटा तथा प्रो. हरिप्रसाद अधिकारी ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। इस अवसर पर आईकेएस के शोधार्थियों को प्रमाणपत्र भी वितरित किए गए। गोष्ठी में प्रो. महेन्द्र पाण्डेय, प्रो. रमेश प्रसाद, प्रो. विद्या कुमारी चन्द्रा सहित कई अन्य विद्वानों की उपस्थिति रही।
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हिन्दुस्थान समाचार / श्रीधर त्रिपाठी