पांगणा-करसोग में लुप्त हो गए लोहड़ी के स्वर पूर्व में एक सप्ताह पहले घर-घर जाकर गायी जाती थी लोहड़ी

मंडी, 12 जनवरी (हि.स.)। मंडी जनपद में लोहड़ी एवं मकर संक्रांति का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। जिला के पांगणा-करसोग मे लोहड़ी से आठ दिन पहले से लडक़े और लड़कियों की टोलिया हर रोज सायंकाल के समय घर-घर जा कर लोहड़ी की पारंपरिक गाथा गाया करती थी। लोगों को भी लोहड़ी गायन की इन टोलियों का हर रोज बेसब्री से इंतजार रहता था। हर घर, हर परिवार के सदस्य द्वारा बच्चों को लोहड़ी गाने के बदले रेबड़ी, मुंगफली, मोड़ी बांटी जाती तथा सिक्के दानस्वरुप दिए जाते। आज से लगभग तीन दशक पहले लोहड़ी गीत को गाने वाले लडक़े और लड़कियों की दो ही बड़ी टोलियां होती थी। वही साल दर साल इन टोलियो की संख्या बंटकर और बढक़र अनेक हो गई। इसके बाद दिन प्रतिदिन इतनी कमी आ गई कि गायन टोलिया अब कहीं नजर ही नहींआती।

सुकेत संस्कृति साहित्य एवम जन कल्याण मंच पांगणा-सुुकेत के अध्यक्ष डॉक्टर हिमेंद्र बाली का कहना है कि लोहड़ी गीतों को सुनने के लिए आज भी सायंकाल के समय इन टोलियो का इंतजार रहता है। लेकिन एक सप्ताह तक कहीं कोई टोली नजर नहीं आई। दूर-दूर तक सुनाई देने वाली -आई भाभी लोहड़ी-लोहड़ी। क्या-क्या लाई भाभीए क्या-क्या लाई। लुंगी केहड़ा टोपा भाभीए लुंगी केहड़ा टोपा, साओरे दा घर खोटा भाभीए साओरे दा घर खोटा । इसके अलावा-

बोलो मुंडेओ अमीया- अमीया। कणका जमीया-अमीया। कणक बटेरे-दो साधु मेरे। एक गया घाह जो-घाह हुआ थोड़ा। अगे मिलेया घोड़ा-घोड़े पर काठी। अगे मिलेया हाथी-हाथी रे दांदडु-गोबरा रे चंदडु-अमीया। उसी प्रकार -जट्टी-मट्टी घेरनी-घेरनी। जट्टा रे सिरा फेरनी। जट्ट साडा राणा-बाग तमाशे जाणा।- धंतरिया धंतारा-धंतार सा। जोली रा मुह काला, धंतार सा। जोली रे चारा पाके, धंतार सा। साओण महीने राखे, धंतार सा। साओण साडा भाई, धंतार सा। भाई री गोदा भतीजा, धंतार सा। भतीजे रे पैरे कडय़िाए धंतार सा। कुने सनैरे घडिय़ा,धंतार सा। घडऩे वाला हीरा, धंतार सा। हीरे रे सिरा टोपी,धंतार सा। पैहने राजा गोपी धंतार सा। इसके अलावा-बोलो म_ेयो घेरनी-घेरनी, लोहड़ी मल्होड़ी-घींगा घोड़ी, बच्चों की सुरीली आवाज से वादियों का कण-कण मुखरित हो उठता था। लेकिन अब ये स्वर लहरियां आज लुप्त हो गई है।

पुरातत्व चेतना संघ मंडी द्वारा स्वर्गीय चंद्रमणी कश्यप राज्य पुरातत्व चेतना पुरस्कार से सम्मानित डॉक्टर जगदीश शर्मा का कहना है कि बच्चों के उल्लास के पर्व लोहड़ी गायन की इस प्राचीन थाती को सुरक्षित रखने के लिए पाश्चात्य संस्कृति का दमन कर भारतीय संस्कृति का अनुकरण करना होगा। तभी लोहड़ी जैसे पावन पर्व व भारतीय संस्कृति का अस्तित्व बच सकता है। यह तभी संभव है जब दिग्भ्रमित समाज आध्यात्मिकता की ओर बढ़ेगा।

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हिन्दुस्थान समाचार / मुरारी शर्मा

   

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