जयपुर, 28 सितंबर (हि.स.)। संस्कृत संस्कृति विकास संस्थान की ओर से रविवार को नवरात्र का उद्भव और विकास विषय पर ऑनलाइन व्याख्यान का आयोजन किया गया। मुख्य वक्ता जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के दर्शन विभागाध्यक्ष शास्त्री कोसलेंद्रदास ने कहा कि भारतीय संस्कृति में नवरात्र का विशिष्ट स्थान है। यह पर्व गहन शास्त्रीय चिंतन और परंपरा का द्योतक है। नवरात्र की पूजा-विधि, व्रत-नियम और दुर्गोत्सव की मर्यादाओं को शास्त्रसम्मत ढंग से व्यवस्थित करने का कार्य सत्रहवीं शताब्दी के महान आचार्य नंद पंडित ने किया था।
उन्होंने बताया कि 1550 ईसवी में जन्मे नंद पंडित काशी में निवास करते थे। उनका लेखन 1580 से 1630 तक रहा। नंद पंडित की रचनाओं में 'नवरात्र–प्रदीप' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। नवरात्र शब्द काल का नहीं, बल्कि कर्म का वाचक है। 'रात्रि' का आशय तिथि से है, अतः नवरात्र का वास्तविक अर्थ है विशिष्ट पूजा के साथ नौ तिथियों में किए जाने वाले व्रत। उन्होंने कहा कि नवरात्र-प्रदीप का प्रथम प्रकाशन 1928 ईस्वी में गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज बनारस के पंडित वैद्यनाथ शास्त्री द्वारा संपादित रूप में हुआ था, जिसकी भूमिका महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज ने लिखी थी।
प्रो. परमानंद भारद्वाज ने कहा कि नवरात्र पर शास्त्रसम्मत साधना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि नवरात्र भारतीय संस्कृति में श्रद्धा, भक्ति और परंपरा का अद्वितीय पर्व है। यह नौ रात्रियों में देवी शक्ति की आराधना और धर्म-संस्कृति के उत्सव का प्रतीक है। नौ दिवसीय इस उत्सव में न केवल देवी की आराधना की जाती है, बल्कि आत्मशुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का संदेश भी निहित होता है। समारोह में देश भर के अनेक विद्वान और शोधार्थी उपस्थित रहे।
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हिन्दुस्थान समाचार / रोहित



