अधिकांश जी20 देशों को जलवायु कार्रवाई बढ़ाने की जरूरत, कॉप29 में ग्लोबल साउथ इंडेक्स जारी

नई दिल्ली, 12 नवंबर (हि.स.)। अजरबैजान के बाकू में आयोजित वार्षिक जलवायु सम्मलेन कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप29) की बैठक का मंगलवार को दूसरा दिन है। इस बीच स्वतंत्र थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायनरमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) ने मंगलवार को कॉप29 में एक नया अध्ययन ‘आर जी20 कंट्रीज डिलीवरिंग ऑन क्लाइमेट गोल्स? ट्रैकिंग प्रोग्रेस ऑन कमिटमेंट्स टू स्ट्रेंथन द पेरिश एग्रीमेंट- द क्लाइमेट अकाउंटबिलिटी मैट्रिक्स’ को जारी किया है। यह ग्लोबल साउथ के लिए अपनी तरह का पहला मूल्यांकन करने वाला उपकरण है, जो जलवायु शमन से आगे जलवायु पक्षों पर विभिन्न देशों के प्रदर्शन का विश्लेषण करता है, जिसमें अनुकूलन और कार्यान्वयन के साधन शामिल हैं। क्लाइमेट अकाउंटबिलिटी मैट्रिक्स के अनुसार अधिकांश जी20 सदस्यों को, जिनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, सऊदी अरब और तुर्की जैसे देश शामिल हैं, जलवायु कार्रवाई में प्रमुखता से तेजी लाने की जरूरत है।

अध्ययन में पाया गया है कि ग्लोबल साउथ में भारत और दक्षिण अफ्रीका ने प्रमुख समझौतों में सक्रियता से भाग लेकर, घरेलू स्तर पर उचित प्रयास करके और अपने दायित्वों का पालन करके जलवायु कार्रवाई में महत्वपूर्ण प्रगति की है। भले ही देशों ने महत्वपूर्ण प्रगति की हो लेकिन निश्चित रूप से क्षेत्रवार स्थिति को मजबूत करना चाहिए और महत्वाकांक्षी जलवायु कार्रवाइयों के लिए सहायक वातावरण बनाना चाहिए।

सीईईडब्ल्यू की सीईओ डॉ. अरुणाभा घोष ने कहा, “जलवायु कॉप महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाने, कार्रवाई को सक्षम करने और सबसे महत्वपूर्ण बात, सभी को जवाबदेह बनाने के बारे में है। भले ही कॉप28 ने कई वादे किए थे लेकिन इसने विकसित देशों को छोड़ दिया था। इसलिए कॉप29 निश्चित तौर पर जवाबदेही के बारे में होना चाहिए। इसे नेट-जीरो की दिशा में रफ्तार को तेज करना चाहिए। सबसे बड़े ऐतिहासिक उत्सर्जकों को अन्य की तुलना में तेजी से आगे बढ़ना होगा और अब अपने उत्सर्जन को घटाना होगा। कॉप29 को जलवायु वित्तपोषण की मात्रा और गुणवत्ता दोनों को बढ़ाना चाहिए। जैसा कि हम नए सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य (एनसीक्यूजी) पर चर्चा करते हैं लेकिन सवाल यह नहीं है कि कितना जरूरी है बल्कि यह है कि यह कितने भरोसेमंद तरीके से उपलब्ध कराया जाएगा। अंत में, कॉप29 को सबसे सुभेद्य लोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए। वही सबसे गरीब हैं, जो जलवायु की चरम घटनाओं से सर्वाधिक प्रभावित हैं, जिसके कारण अर्थव्यवस्थाएं पटरी से उतर जाती हैं और अन्य सतत विकास लक्ष्यों की दिशा में प्रगति उलट जाती है। कॉप29 को जवाबदेही पर खरा उतरना चाहिए, महत्वाकांक्षाएं बढ़ानी चाहिए, भरोसेमंद और उत्प्रेरक जलवायु वित्तपोषण के लिए जोर देना चाहिए और सर्वाधिक जोखिम वालों की रक्षा करनी चाहिए।”

सीईईडब्ल्यू मैट्रिक्स ने इन देशों का पांच महत्वपूर्ण विषयों - अंतरराष्ट्रीय सहयोग, राष्ट्रीय उपाय, क्षेत्रीय मजबूती, सक्षमकर्ता और जलवायु अनुकूलन प्रयास - और 42 संकेतकों के आधार पर मूल्यांकन किया है। यह न्याय और साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों एवं संबंधित क्षमताओं (सीबीडीआर-आरसी) के सिद्धांतों को ध्यान में रखता है। देशों को नेतृत्वकर्ता, उचित प्रयास, सीमित प्रयास और सुधार की आवश्यकता के तहत वर्गीकृत किया गया है। निष्कर्ष बताते हैं कि इस जलवायु आपातकाल के दौरान कॉप29 को जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट के अनुसार अगर 2025 तक आने वाले नए एनडीसी में महत्वाकांक्षा में वृद्धि और तत्काल कार्रवाई नहीं होती है तो वैश्विक तापमान इस सदी के दौरान 2.6 से 3.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। देशों को जलवायु कार्रवाई और महत्वाकांक्षाओं में तत्काल वृद्धि करने और यूएनएफसीसीसी दायित्वों में शामिल होने और उनका पालन करने की आवश्यकता है।

सीईईडब्ल्यू के एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि भारत की जलवायु नीतियों का प्रभाव महत्वपूर्ण है। 2020 और 2030 के बीच बिजली, आवासीय और परिवहन क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय सौर मिशन, उजाला योजना और ईवी के लिए फेम योजना जैसी भारत की नीतियां कोई भी नीति न होने के परिदृश्य की तुलना में उत्सर्जन को लगभग 4 बिलियन टन तक कम कर देंगी। यह कमी 2023 में यूरोपीय संघ के लगभग 1.6 गुना कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन के बराबर है। इन नीतियों ने भारत को अपने ऊर्जा मिश्रण में अक्षय ऊर्जा की उच्च हिस्सेदारी की ओर बढ़ा दिया है। इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने में वृद्धि हुई है और घरेलू एयर कंडीशनिंग व प्रकाश व्यवस्था में ऊर्जा दक्षता में सुधार हुआ है। हालांकि, भारत की अक्षय ऊर्जा को 1,500 गीगावाट से आगे बढ़ने पर भूमि, जल और जलवायु चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।

सीईईडब्ल्यू अध्ययन के अनुसार नेट-जीरो तक पहुंचने में विकसित देश, विकासशील देशों के 33 वर्ष की तुलना में, औसतन 51 वर्ष ले रहे हैं और वे 2030 तक 43 प्रतिशत कटौती का लक्ष्य पूरा करने के रास्ते पर भी नहीं हैं। इसके अलावा, अमेरिका और कनाडा जैसे प्रमुख विकसित देशों की 2020 से पहले की अवधि में जलवायु समझौतों में भागीदारी अनियमित रही है और उनकी महत्वाकांक्षाएं भी कमजोर हैं। विकसित दुनिया को उत्सर्जन की अपनी समय सीमा में आगे लाने और विकासशील देशों को सामाजिक-आर्थिक विकास चुनौतियों को दूर करने के लिए पर्याप्त कार्बन स्थान मुक्त करने की जरूरत है।

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / विजयालक्ष्मी

   

सम्बंधित खबर