रोहड़ू भुंडा महायज्ञ: 69 वर्षीय सूरत ने निभाई सांसें थमा देने वाली मुख्य बेड़ा रस्म

शिमला, 4 जनवरी (हि.स.)। शिमला जिला के रोहड़ू उपमंडल की स्पैल घाटी में 40 वर्षों के बाद आयोजित हुए धार्मिक अनुष्ठान भुंडा महायज्ञ में शनिवार को एक ऐतिहासिक घटना घटी। 69 वर्षीय सूरत राम ने 400 से 500 मीटर लंबी दिव्य रस्सी पर फिसलकर 9वीं बार मुख्य बेड़ा रस्म निभाई। इसे देखने के लिए हजारों श्रद्धालु यहां एकत्र हुए थे। यह एक ऐसा महायज्ञ है जिसमें हर किसी की सांसें थम सी जाती हैं और इस रस्म को देखने के लिए लोग अपनी आँखों से विश्वास नहीं कर पाते।

दरअसल इस विशेष रस्म में सूरत राम ने लगभग छह इंच मोटी स्वयं तैयार की गई लकड़ी की काठी पर बैठकर फिसलते हुए 400 से 500 मीटर लंबी दिव्य रस्सी पर पहाड़ी के एक छोर से दूसरे छोर तक सुरक्षित रूप से पहुँचने का साहसिक कार्य किया। इस दौरान प्रशासन और पुलिस बल भी तैनात रहा। इस रस्म में किसी तरह की अनहोनी से बचाव के लिए प्रशासन द्वारा पुख्ता प्रबंध किये गए थे। दिव्य रस्सी के नीचे एक जाली लगाई गई थी ताकि रस्सी पर फिसलते समय सूरत राम को किसी तरह का नुकसान न पहुंचे। यह रस्म कई मायनों में अनोखी है क्योंकि 69 वर्षीय सूरत राम के लिए यह न केवल शारीरिक चुनौती थी। बल्कि यह अपने परिवार की प्रतिष्ठा और इस सांस्कृतिक धरोहर को निभाने का भी एक महत्त्वपूर्ण अवसर था। खास बात यह है कि सूरत अपने जीवन काल में नौ बार इस रस्म को निभा चुके हैं।

रस्सी टूटने के बाद फिर से शुरू हुआ अनुष्ठान

महायज्ञ की रस्म से पहले शनिवार दोपहर एक अप्रत्याशित घटना घटी जब दिव्य रस्सी टूट गई। जिसके कारण रस्म को कुछ घंटों के लिए स्थगित करना पड़ा। हालांकि महायज्ञ स्थल पर मौजूद श्रद्धालुओं में उत्साह और विश्वास की कोई कमी नहीं थी। आयोजकों ने रस्सी को फिर से तैयार किया गया और सूरत राम ने अपने साहस से महाआहुति को संपन्न किया।

यह रस्म केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है। बल्कि इसके पीछे एक गहरी सांस्कृतिक व धार्मिक परंपरा भी छिपी हुई है और यह पीढ़ियों से चली आ रही है। महायज्ञ में भाग लेने वाले इस कार्य को पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ करते हैं और इसकी सफलता न केवल महायज्ञ की सफलता को दर्शाती है वहीं यह उस परिवार की धार्मिक आस्थाओं और बलिदान की भावना को भी दिखाती है।

बेड़ा रस्सी से नहीं गिरा आज तक

इस महायज्ञ की एक और रोचक बात यह है कि आज तक इतिहास में कभी भी यह बेड़ा रस्सी से नहीं गिरा। यह रस्म पवित्रता का प्रतीक मानी जाती है और इस दौरान बेड़ा सफेद पोशाक पहने होता है। जिसे कफन कहा जाता है। रस्सी के नीचे वाले छोर पर उसकी पत्नी विधवा का रूप धारण किए बैठी होती है। जैसे ही बेड़ा अपनी मंजिल तक सुरक्षित पहुंचता है तो उसकी पत्नी को दुल्हन के रूप में सजाया जाता है। जो न केवल यज्ञ की सफलता का प्रतीक है बल्कि परिवार के लिए यह एक आशीर्वाद भी माना जाता है।

इस रस्म की अवधि कुछ ही मिनटों की होती है। लेकिन यह इतनी चमत्कारी और रोमांचक होती है कि देखने वाले उन क्षणों को जीने के लिए अपनी सांसें थामे रहते हैं। रामपुर और कुल्लू क्षेत्रों में इस परंपरा को निभाने वाले परिवारों को ‘जेडी’ के नाम से जाना जाता है। इन परिवारों के सदस्य हर महायज्ञ में यह रस्म निभाते हैं। जो परिवार की धार्मिक आस्था और परंपरा का हिस्सा है।

सूरत राम और उनके परिवार की यह परंपरा कई पीढ़ियों से चली आ रही है। उनके परिवार में दो भाई सूरत राम और कंवर सिंह इस रस्म को निभाते हैं और वे इसे विभिन्न स्थानों पर जाकर संपूर्ण करते हैं। यह परंपरा एक सम्मान का प्रतीक मानी जाती है और इसे निभाने से पहले परिवार के सदस्य कई प्रकार की विशेष तैयारियाँ करते हैं।

भगवान परशुराम से जुड़ी महायज्ञ की उत्पत्ति

भुंडा महायज्ञ की उत्पत्ति भगवान परशुराम से जुड़ी हुई मानी जाती है जिन्होंने नरमुंडों की बलि दी थी जिसे नरमेध यज्ञ कहा जाता है। यह यज्ञ बुशहर रियासत के राजाओं की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है। इस यज्ञ में दी जाने वाली आहुति को ‘बेड़ा’ कहा जाता है। यह न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है बल्कि परिवार की धार्मिक आस्थाओं और परंपराओं का भी प्रतीक है।

स्थानीय भाषा में इसे भुंडा महायज्ञ कहा जाता है और यह महायज्ञ आज भी उसी आस्था और श्रद्धा के साथ आयोजित किया जाता है जैसे प्राचीन समय में हुआ करता था। महायज्ञ के मुख्य आकर्षण इस बेड़ा द्वारा की जाने वाली आहुति होती है और इसे देखने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं।

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हिन्दुस्थान समाचार / उज्जवल शर्मा

   

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