हमारा ज्ञान सनातन है, लोक कल्याण हो हमारा उद्देश्य : प्रो. नचिकेता तिवारी
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- Mar 02, 2025
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- दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के राष्ट्रीय शोधार्थी समागम के दूसरे दिन विद्वानों ने व्यक्त किये विचार
भोपाल, 02 मार्च (हि.स.)। दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा मैपकास्ट परिसर में चल रहे त्रिदिवसीय राष्ट्रीय शोधार्थी समागम में दूसरे दिन रविवार को विविध सत्रों में देशभर से आए विद्वानों ने सम्बोधित किया। ‘भारतीय ज्ञान परंपरा एवं आधुनिक शोध’ विषय पर आयोजित सत्र में आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर नचिकेता तिवारी ने कहा कि ज्ञान नया पुराना नहीं होता। हमारा जो ज्ञान है, वो सनातन है। वह पहले भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा। हमें शोध में इन विधियों एवं पद्धतियों का ध्यान रखना चाहिए। हमें सनातन के आलोक में शोध करना चाहिए, जिससे हमारा और विश्व का मंगल हो।
उन्होंने कहा कि भारत एक विलक्षण सभ्यता है। यूरोपीय देश भाषा पर आधारित हैं। मध्यपूर्व धर्म पर आधारित है, जबकि हम न भाषा, न धर्म और न रंग के आधार पर जुड़े है, बल्कि ज्ञान के आधार पर जुड़े हैं। इसका अधिष्ठान ज्ञान है। हिन्दू महानद की धारा वैदिक है, दूसरी बौद्ध है और तीसरी धारा जैन है। चौथी धारा सिख अर्थात् गुरुओं की शिक्षा जिसका संकलन है “श्री गुरू ग्रंथ साहिब।”। उन्होंने कहा कि लव शब्द संस्कृत के शब्द लभ्यते से आया है, जिसका अर्थ है ‘लाभ की लालसा होना’। जबकि प्रेम एकात्मता की तरफ प्रेषित करता है। इसी तरह एक शब्द है 'हसबैंड' जिसका मतलब हस माने हाउस, बैंड माने बॉन्डी (जुड़ा हुआ) यानी एक ऐसा व्यक्ति जो घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हो तथा घर का स्वामी हो।जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय दिल्ली की प्रोफेसर डॉ. रीता सोनी ने कहा कि भविष्य में इंटरनेट प्रोटोकॉल का प्रभाव हर मॉलिक्यूल पर होगा। उन्होंने योग का उदाहरण देते हुए कहा कि हम यह परंपरा सारे विश्व को बिना किसी मूल्य के दे रहे हैं।
अनुवाद, व्यक्तिकरण एवं वैश्वीकरण में एआई की प्रासंगिकता
समागम में डॉ. उत्पल चक्रवर्ती ने कहा कि एआई का सबसे सटीक और सार्थक प्रयोग भाषा के क्षेत्र में हो रहा है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है अनुवाद। उन्होंने कहा कि अनुवाद केवल भाषाओं का परिवर्तन नहीं है, बल्कि उस भाषा के मर्म को भी उसी सावधानी से दूसरी भाषा में पहुँचाना है। उन्होंने एआई से जुड़े सवालों पर कहा कि वर्तमान में एआई के जितने मॉडल्स हम देख रहे हैं, वो जनरल पर्पज़ मॉडल्स हैं। इसलिए उन्हें ‘वन फिट फॉर ऑल’ समझने से बचा जाना चाहिए। एआई के माध्यम से शिक्षा की कमियों को पूरा किया जा सकता है। स्वास्थ्य सम्बन्धी क्षेत्र में उन्होंने एआई के योगदान का ज़िक्र किया।दूसरे सत्र को संबोधित करते हुए सांची विश्वविद्यालय के कुलगुरु प्रो. वैद्यनाथ लाभ ने कहा कि समय के साथ लोगों के चिंतन एवं अभिव्यक्ति में परिवर्तन आता है। 1192 के बाद तुर्क अफगान आए। उन्होंने नालंदा, विक्रमशिला जैसी धरोहरों को नष्ट किया, मुगलों ने भी संस्कृति को कुचलने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने भारतीयों के मन में उनके प्रति जानबूझ कर नकारात्मक भावना भरने का प्रयास किया। हम इन हीन भावनाओं से तभी उबर सकते है, जब अपनी ज्ञान परम्परा को आत्मसात् करके अपने शास्त्रों, साहित्य, दर्शन एवं वास्तविक स्रोत को जानने का प्रयास करेंगे। 1834-35 में आई मैकाले पद्धति को नकारात्मक बताते हुए उन्होंने तथ्यों पर जोर देने की बात कही। उन्होंने कहा कि यदि वेदों और शास्त्रों में कही भेद आये तो वेद को श्रेष्ठ मानना चाहिए। ऐसे ही बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक है। हमारे यहाँ शैली अलग हो सकती है, लेकिन उनमें भेद नहीं होगा। शोधपत्र में नकल नहीं बल्कि मौलिकता को प्राथमिकता दें। हम यह प्रयास करें कि हमारे स्रोत तथ्यपूर्ण हो। शोध का उद्देश्य मात्र समस्या का समाधान ही नहीं, अपितु लोक कल्याण और समाजोपयोगी हो जिससे यह समाज उसका लाभ ले सके।
मेपकास्ट के महानिदेशक डॉ. अनिल कोठारी ने कहा कि भारत का रण और आयुध परम्परा बड़े शोध का विषय है। अच्छे शोध हेतु हमें अपने जड़ो में जाना होगा। हमें अपनी गौरवशाली परम्परा को अनुभूति करना है और उस पर काम करने की आवश्यकता है।
शोध इतिहास को समझने और समाज को जागरूक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है
“समाज में शोध के प्रभाव” विषय पर बोलते हुए, माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के कुलगुरु विजय मनोहर तिवारी ने भोजशाला पर किए अपने शोध के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि शोध इतिहास को समझने और समाज को जागरूक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन्होंने कहा कि भारत की असली विरासत को पहचानने और सहेजने के लिए गहराई से शोध करने की जरूरत है। उन्होंने समाज से अनुरोध किया कि वे पारंपरिक इतिहास से आगे बढ़कर भारत के भूले-बिसरे अतीत को खोजने के लिए शोध करें। उन्होंने जोर दिया कि हमारा इतिहास सिर्फ एक ही दौर या शासकों तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसमें भारत के अलग-अलग राजवंशों के योगदान को भी शामिल किया जाना चाहिए। अंत में, उन्होंने इतिहास को संतुलित और शोध-आधारित तरीके से समझने की अपील की। छत्तीसगढ़ की शोधार्थी स्वाति आनंद ने दर्शन (दृष्टि) और भारतीय लोक परंपरा के महत्व पर बात की। उन्होंने बताया कि शोध एक प्रकार का दर्शन है। उन्होंने कहा कि यह ज़रूरी है कि हम जिस समाज और संस्कृति का अध्ययन करते हैं, उसे पूरी तरह से समझें।
हिन्दुस्थान समाचार / मुकेश तोमर