लोक कवि मोहन मण्डेला- जिनकी रचनाएं राजस्थान की मिट्टी में सदियों तक गूंजेंगी

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भीलवाड़ा, 29 नवंबर (हि.स.)। धार्मिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक वैभव के लिए पहचान रखने वाले शाहपुरा ने साहित्य के क्षेत्र में भी अद्वितीय योगदान दिया है। इस नगर के गौरव को बढ़ाने वाले साहित्यकारों में लोककवि मोहन मण्डेला का नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। उनकी रचनाधर्मिता न केवल साहित्यिक पटल पर विशेष स्थान रखती है, बल्कि लोकजीवन के विविध रंगों को भी सहजता से उकेरती है।

शुरुआती जीवन और प्रेरणा

22 जून 1933 को शाहपुरा के प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे मोहन मण्डेला के पिता मांगीलाल जी बहुभाषाविद, प्रखर वक्ता और क्रांतिकारी विचारधारा के व्यक्ति थे। उनके पिता ने तात्कालिक राजशाही का विरोध करते हुए एक महीने के अनशन के बाद प्राण त्याग दिए। इस घटना ने बालक मोहन के जीवन को गहराई से प्रभावित किया और उनके मन में विद्रोह, संघर्ष और आमजन के प्रति संवेदना का बीज बोया।

गरीबी और जीवन की कठोरताओं का सामना करते हुए, मोहन मण्डेला ने अपने बाल्यकाल से ही कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त करना शुरू कर दिया। उनकी कविताओं में आमजन का दर्द, आनंद और उनके जीवन की सजीव झलकियाँ नजर आती हैं।

राजस्थानी साहित्य में योगदान

राजस्थानी भाषा में उनकी रचनाएं अनूठी हैं। उन्होंने काव्य में उन आंचलिक शब्दों का प्रयोग किया जो अब तक अछूते थे। उनकी पुस्तक ‘बाड़्यां रा फूलड़ा’ को राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा 1992 में जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में ‘बाज रही मरदंग’, ‘घंटी बाजी टनन टन’, ‘म्हारो राजस्थान’, ‘नारां सूं लड़बो सोरो छ’ और ‘चाँदों रूप रो डलो’ जैसी कविताएं शामिल हैं। ये रचनाएं न केवल साहित्यिक दृष्टि से अद्वितीय हैं, बल्कि आमजन के बीच भी बेहद लोकप्रिय हैं।

साहित्यिक योगदान और विरासत

लोककवि मण्डेला ने राजस्थानी और हिंदी दोनों भाषाओं में लेखन किया। उनकी तीन प्रमुख पुस्तकें ‘शगती भगती और कुरबानी’, ‘बाड़्यां रा फूलड़ा’ और ‘मिनखां री बानगी’ प्रकाशित हुईं। ‘मिनखां री बानगी’ में उन्होंने मानव स्वभाव की 150 कमजोरियों को कुंडलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

उनकी अप्रकाशित रचनाओं में ‘धरती री झांकी’ और ‘अलगोजा री ओळखाण’ विशेष उल्लेखनीय हैं। ‘अलगोजा री ओळखाण’ में उन्होंने 400 पद बगड़ावत की लोकधुन पर रचे, जो लोकजीवन का अद्भुत चित्र प्रस्तुत करते हैं।

शिक्षा और समाज सेवा

प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त हुए लोककवि मण्डेला ने विद्यालयों में होने वाले उत्सवों के लिए भी रचनाएं कीं। उनकी रचनाएं बच्चों और शिक्षकों के बीच प्रेरणा का स्रोत बनीं। ‘विद्यालयों में उत्सव पर्व हेतु आयोजित रचना उपहार पुस्तिका’ का संपादन डायट द्वारा किया गया और यह विद्यालयी शिक्षा में उपयोगी साबित हुई।

परिवार और परंपरा

मोहन मण्डेला के पुत्र सत्येंद्र कुमार मण्डेला और डा.कैलाश मण्डेला ने भी साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई। कैलाश मण्डेला को ‘कुरल काव्य’ के राजस्थानी अनुवाद के लिए केंद्रीय साहित्य अकादमी से राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है।

स्मृति और सम्मान

1996 में उनके निधन के बाद से शाहपुरा में उनकी स्मृति में 26 सालों से अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन उनकी विरासत को जीवित रखता है। हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा उनके नाम पर नियमित पुरस्कार की स्थापना की गई है।

मोहन मण्डेला का जीवन और कृतित्व लोकजीवन को समर्पित था। उनके गीत और कविताएं राजस्थान के हर कोने में गूंजती रहेंगी। ‘यो है म्हारो राजस्थान’ जैसी रचना को राजस्थान का राज्यगीत बनाने की अपील उनकी साहित्यिक उत्कृष्टता को प्रमाणित करती है। लोककवि मोहन मण्डेला को उनके अनमोल योगदान के लिए हम शत-शत नमन करते हैं। उनकी रचनाएं सदियों तक प्रेरणा देती रहेंगी।

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हिन्दुस्थान समाचार / मूलचंद

   

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