मशरूम की खेती किसानों के लिए साबित हो सकती है रामबाण

कानपुर,15 फरवरी (हि.स.)। मशरूम की खेती कृषकों की आय बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। इसकी खेती के लिए अन्य फसलों के समान खेती की आवश्यकता नहीं होती। अतः यह छोटे एवं भूमिहीन किसानों तथा गृहणियों के लिए उपयुक्त व्यवसाय हो सकता है। यह जानकारी गुरुवार को चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर के कृषि विज्ञान केंद्र दिलीप नगर द्वारा अनूपपुर गांव में आयोजित हुए एक दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में केंद्र के प्रभारी डॉक्टर अजय कुमार सिंह ने दी।

उन्होंने बताया कि इसे अपनाकर बेरोजगारी एवं अपर्याप्त पोषण और औषधीय गुणों को जन- जन में प्रचार करने की आवश्यकता है। मशरूम का उत्पादन फसल काटने के बाद बचे हुए भूसे पर किया जाता है। ऐसा अनुमान है कि भारत में प्रति वर्ष लगभग 30 से 35 मिलियन टन कृषि अवशेष उत्पन्न होता है। मशरूम (ढिंगरी) और अन्य सूखे मशरूमों में 20 से 30 प्रतिशत तक प्रोटीन होती है।

इस अवसर पर वैज्ञानिक डा.निमिषा अवस्थी ने बताया कि मशरूम में फोलिक एसिड तथा विटामिन दृ बी काम्प्लेक्स के साथ आयरन भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। परिणामस्वरुप एनीमिया रोगियों के लिए यह दवाई का काम करता है। गर्भवती महिलाओं और बढ़ते हुए बच्चों को मशरूम खाने की सलाह दी जाती है।

उन्होंने कहा कि केंद्र द्वारा 5 गांव अनूपपुर, रुदापूर, औरंगाबाद, मझियार एवं सहतावनपुरवा में ढिंगरी मशरूम का उत्पादन का प्रशिक्षण देने के साथ ही अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन में ढिंगरी मशरूम 50 परिवारों में करवाया गया। वास्तविक बीज नहीं होते हैं। मशरूम के बीज को स्पान कहा जाता है। इसका उत्पादन कीटाणुरहित अवस्था में वानस्पतिक प्रवर्धन तकनीक द्वारा छत्रक से प्राप्त कवक जाल से किया जाता है। इसके लिए तकनीकी जानकारी एवं एक अच्छी प्रयोगशाला का होना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए मशरूम बीज को किसी सरकारी या गैर सरकारी मशरूम बीज उत्पादक संस्थाओं से ही प्राप्त करना चाहिए ।

वैज्ञानिक डॉक्टर राजेश राय ने बताया कि मशरूम का बीज प्रायः गेहूं के दानों पर बनाया जाता है। ढिंगरी की खेती गेहूं के उपचारित भूसे पर की जाती है। इसके लिए करीब 90 से 100 लीटर पानी में 10 से 12 किग्रा. सूखे भूसे को प्लास्टिक या लोहे के ड्रम में भिगो दिया जाता है। साथ ही 10 लीटर पानी में 7.5 ग्राम बाविस्टीन तथा 125 मिलीलीटर फार्मेलिन घोलकर इसे भूसे में मिला दिया जाता है। इसके तुरंत बाद ड्रम को धक देना चाहिए। लगभग 18 घंटे बाद गीले भूसे को एक साफ जाली पर रखा जाता है। इससे अधिक पानी निकल जाता है। फिर भूसे को तिरपाल पर निकल जाता है। फिर भूसे को तिरपाल पर निकालकर आधे घंटे के लिए सूखा लिया जाता है। इसके बाद पॉलिथीन के पैकेट में बुवाई करते हैं। पॉलीथीन 3/4 तक भरकर उसका मुँह बांध देते हैं, और फिर उसमें कुछ छेद सुजे की सहायता से कर देते हैं। लगभग 20-25 दिन बाद उत्पादन प्राप्त होने लगता है ।

हिन्दुस्थान समाचार/राम बहादुर/बृजनंदन

   

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