विकसित भारत के लिए ज्ञान परंपरा के भारतीय मॉडल की आवश्यकता : चक्रवाल

-“भारतीय ज्ञान परंपराएँ: संचार और महत्व” विषय पर तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के समापन समारोह में वक्ताओं ने प्रस्तुत किया संबोधन

गांधीनगर, 3 फ़रवरी (हि.स.)। “भारतीय ज्ञान परंपराएँ: संचार और महत्व” विषय पर तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का शनिवार को गांधीनगर स्थित गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय में समापन हुआ। देशभर से आए शोधार्थियों, शिक्षकों और विशेषज्ञों ने संगोष्ठी में आयोजित हुए विभिन्न सत्रों में अपने विचार साझा किए। समापन समारोह में शामिल हुए गुरु घासीदास यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रो. आलोक कुमार चक्रवाल ने बतौर मुख्य अतिथि कहा कि मनुष्य को कभी भी खुद को बड़ा बताने व दूसरों को छोटा नहीं बताना चाहिए। पश्चिम के देशों ने भारत को हमेशा कमतर ज्ञानवान समझने की भूल की है।

चक्रवाल ने अर्थशास्त्र के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि हमें फादर ऑफ इकोनॉमिक्स पर एडम स्मिथ याद है लेकिन भारत में अर्थशास्त्र की पूर्ण जानकारी कौटिल्य अपनी पुस्तक में कहीं वर्षों पहले ही दे चुके है। उन्होंने कहा कि हमें अब भारतीय ज्ञान परंपरा से जुड़े पुराने साहित्य को ही नहीं अपितु नवीन साहित्य जो भारतीय ज्ञान परंपरा के वैभव को दर्शाता है उसे भी आत्मसात करना चाहिए। भारत अब दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। पूरे विश्व का 48 फीसदी ऑनलाइन लेनदेन अकेले भारत में हो रहा है। इस दौरान विशिष्ट अतिथि ऑर्गनाइजर पत्रिका के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने कहा कि देश में वर्तमान में एक बड़ी बहस छिड़ी हुई है कि मंदिर के निर्माण से रोजगार नहीं मिल सकता है, लेकिन सदियों से हमारे भारतवर्ष में मंदिर और रोजगार साथ-साथ चले है। लेकिन, पिछले 70 वर्षों में हमारी अप्रोच सही नहीं रही हैं। भारत ही अकेली ऐसी सभ्यता है जो 1300 वर्षों तक आक्रमण और अत्याचार सहने के बाद भी लगातार उठ खड़ी हुई है। हमें विकास के लिए अमेरिकी मॉडल नहीं अपितु भारतीय मॉडल की जरूरत है। उन्होंने विकसित भारत के लिए ज्ञान परंपरा के भारतीय मॉडल की आवश्यकता पर जोर दिया। कार्यक्रम में समापन सत्र के मुख्य वक्ता जेएनयू दिल्ली के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के प्रो.अश्विनी महापात्र ने कहा कि देश पश्चिमी सोच से हमें अब बाहर निकलने की जरूरत है। हमें गुलामी की मानसिकता से बाहर आना होगा। हमें कहां नेतृत्व करना है ये मुख्यबिंदु है। हमारे इतिहास में छेड़छाड़ करके पश्चिम ने हमें हमारे गौरवशाली इतिहास से दूर रखने की कोशिश की है, लेकिन वास्तविकता यह है कि जो हमारे पास समृद्धज्ञान परंपरा है वो किसी के पास नहीं है।

सनातन संस्कृति के मूल भावों को आत्मसात करते हुए मिले शिक्षा :दूबे

कार्यक्रम का अध्यक्षीय उद्बोधन प्रस्तुत करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रमा शंकर दूबे ने कहा कि ज्ञान का सर्वप्रथम उद्भवही भारत में हुआ है। भारतीय ग्रंथों ने विश्व को ज्ञान दिया। भारतीय ज्ञान परंपरा में भौतिकता और आध्यात्मिकता का अद्भुत संगम है। मनुष्य में शरीर, मन, बुद्धि के साथ पर्यावरण का बेहतर सामंजस्य है। आज आवश्यकता है कि हम शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं को सनातन संस्कृति के मूल भावों को आत्मसात करते हुए शिक्षा दें। उन्होंने कहा कि छात्रों में देश प्रेम की भावना का विकास करना शिक्षा का उद्देश्य है, क्योंकि सबसे बड़ी भक्ति राष्ट्र भक्ति है। शिक्षक को छात्रों में राष्ट्रीयता की भावना विकसित करनी होगी। भारतीय ज्ञान परंपरा में भौतिक भाव के साथ आध्यात्मिक भाव दोनों है। भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता का अद्भुत संगम भारतीय ज्ञान परंपरा में ही देखने को मिलता है। आज आवश्यकता है हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के माध्यम से यह रास्ता दिखाती है कि हम भारतीय मूल्यों को हमारे पाठ्यक्रमों में जोड़ा जाए ताकि विद्यार्थियों में देश प्रेम की भावना विकसित की जाए। हमें हमारे धर्मग्रंथों की तरफ लौटना होगा। इस दौरान कार्यक्रम के संयोजक प्रो. अतनु महापात्र ने बताया कि तीन दिवसीय इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस में 230 से अधिक एब्सट्रेक्ट प्राप्त हुए है। साथ ही 180 से अधिक शोध पत्र प्रस्तुत किए गये है।

हिन्दुस्थान समाचार/बिनोद

   

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