लोस चुनाव : संसद में हिन्दी बोलने पर कटा था रघुनाथ विनायक धुलेकर का टिकट

झांसी के प्रथम सांसद आचार्य धुलेकर संसद में हिन्दी बोलतेझांसी के प्रथम सांसद आचार्य धुलेकर संसद में हिन्दी बोलतेझांसी के प्रथम सांसद आचार्य धुलेकर संसद में हिन्दी बोलते

हिन्दी प्रेमी आचार्य धुलेकर को नेहरू ने जब संसद में टोका तो कई भाषाओं में दिया था भाषण, हिल गई थी संसद

महेश पटैरिया

झांसी,11 अप्रैल(हि.स.)। वीरांगना भूमि झांसी ने एक से बढ़कर एक वीर-वीरांगनाओं और विद्वानों को जन्म दिया है। उनमें से एक थे झांसी के पहले सांसद आचार्य रघुनाथ विनायक धुलेकर। जिन्हें संसद में हिन्दी बोलने की कीमत अपने केंद्रीय राजनैतिक कैरियर को समाप्त कर चुकानी पड़ी थी। इसी हिन्दी भाषण के कारण उनका लोकसभा का टिकट काट दिया गया था। हालांकि उनकी विद्वत्ता के चलते उन्हें प्रदेश में 6 साल तक विधान परिषद का सभापति बनाया गया था। इसके बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया था।

कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर 1952 में आचार्य धुलेकर झांसी के पहले सांसद बने थे। महाराष्ट्रियन परिवार से होने के बावजूद वे हिंदी भाषा को प्यार करते थे और उनकी बोलचाल की भाषा भी हिंदी ही थी। आचार्य रघुनाथ विनायक धुलेकर का जन्म 06 जनवरी 1891 को हुआ था। उनकी मृत्यु फरवरी 1980 में हुई थी। उनकी शिक्षा स्नातकोत्तर व एलएलबी थी।

जब संसद में 10 भाषाओं में दिया भाषण

धुलेकर जब पहली बार संसद भवन पहुंचे तो वहां उन्होंने संसद में हिंदी में भाषण दिया। इस बीच जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें यह कहते हुए टोक दिया था कि संसद में दक्षिण भारत व अन्य क्षेत्रों से आये सांसद अलग-अलग भाषाओं को जानने वाले बैठे हुए हैं। यदि आप अपनी बात अंग्रेजी में रखें तो सभी को समझ में आ जाएगी। इसके बाद आचार्य धुलेकर ने अंग्रेजी में ही नहीं, बल्कि मराठी, गुजराती, उड़िया, बंगाली समेत 10 भाषाओं में अपनी बात रखी थी। संसद में मौजूद सभी लोग उन्हें अलग-अलग भाषाओं में बोलते हुए देखकर हैरान थे। अंत में धुलेकर ने कहा था कि उन्हें 10 भाषाओं का ज्ञान है, लेकिन भारत को जोड़ने वाली भाषा हिंदी ही है, जिसे राजभाषा बनाया जाना चाहिए। इस पर नेहरू ने उनकी विद्वत्ता को प्रणाम तो किया लेकिन अगले चुनाव में उनका टिकट काट दिया। क्योंकि नेहरू व आचार्य धुलेकर के रिश्तों में खटास आ गई थी।

1957 के चुनाव में टिकट काट दिया

जब 1957 में दूसरी बार चुनाव हुए तो धुलेकर का टिकट काट दिया गया। उनकी जगह कांग्रेस ने महात्मा गांधी की डॉक्टर डा. सुशीला नैयर को प्रत्याशी बनाया था। तब धुलेकर से केंद्र की राजनीति में लंबी पारी खेलने की उम्मीद जताई जा रही थी। क्योंकि आजादी के आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका रही थी। इसके अलावा वे उच्चकोटि के अधिवक्ता भी थे। समाचार पत्रों का भी उन्होंने प्रकाशन किया था। उनकी इन्हीं खूबियों के चलते उन्हें संविधान सभा का सदस्य भी बनाया गया था। लेकिन, वह दूसरी बार संसद में नहीं पहुंच सके। इसके बाद वह 1958 से 1964 तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सभापति रहे। ये कार्यकाल पूरा करने के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया था और अपना पूरा ध्यान लेखन में लगा दिया।

18 भाषाओं के थे जानकार, हिन्दी से था विशेष लगाव

राजनैतिक गणितज्ञ अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान के उपाध्यक्ष व राज्यमंत्री हरगोविंद कुशवाहा ने बताया कि 18 भाषाओं के जानकार आचार्य धुलेकर हिंदी के प्रबल पक्षधर थे। वे हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिलाना चाहते थे। इसको लेकर उनकी तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू से अनबन हो गई थी। नतीजा यह रहा कि 1957 में दूसरी बार चुनाव हुए तो कांग्रेस ने उनका टिकट काट दिया था। उन्होंने यह भी बताया कि इसका जिक्र उनसे स्वयं झांसी की कई बार की सांसद व केंद्रीय मंत्री सुशीला नैय्यर ने उनके घर पर उनसे साझा की थी।

हिन्दी को देश को एक सूत्र में बांधने वाली भाषा मानते थे

आचार्य धुलेकर के पौत्र निरंजन धुलेकर बताते हैं कि कक्का धुलेकर की पहचान हिंदी के प्रबल पक्षधर के रूप में थी। वे हिंदी को देश को एक सूत्र में बांधने वाली भाषा मानते थे। उनका यह रुख नेहरू को पसंद नहीं था। इसी का नतीजा था कि दूसरे चुनाव में उन्हें लोकसभा का टिकट नहीं दिया गया था।

हिन्दुस्थान समाचार//राजेश

   

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